मुहूर्त: पंचांग शुभ मुहूर्त

 मुहूर्त: पंचांग शुभ मुहूर्त


मुहूर्त काल अर्थात समय के ज्ञान की इकाई है। इसका प्रयोग मुख्य रूप से शुभ कार्यों को करने के लिए किया जाता है। हिंदू वैदिक ज्योतिष विज्ञान के अनुसार हर शुभ और मंगल कार्य को आरंभ करने का एक निश्चित समय होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उस विशेष समय में ग्रह और नक्षत्र के प्रभाव से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और शुभ फल की प्राप्ति होती है।




कालः शुभ क्रियायोग्यो मुहूर्त इति कथ्यते। - मुहूर्तदर्शन, विद्यामाधवीय (१/२०)

अर्थात ऐसा काल या समय जो शुभ क्रियाओं अर्थात शुभ कार्यों के योग्य हो, मुहूर्त कहलाता है। इसी को हम शुभ मुहूर्त, उत्तम मुहूर्त अथवा शुभ समय भी कहते हैं।

ज्योतिष के द्वारा काल ज्ञान होता है और प्राचीन काल से सभी शुभ कार्यों के लिए हमारे महान ऋषियों ने शुभ समय का विचार किया। समय सबसे शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि इसका प्रभाव सभी पदार्थों पर पड़ता है चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन, इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने व्यक्ति के गर्भ से मृत्यु उपरांत 16 संस्कारों तथा अन्य सभी मांगलिक कार्यों के लिए मुहूर्त ज्ञान को आवश्यक बताया है।

मुहूर्त शास्त्र फलित ज्योतिष का ही एक अंग है। इसकी सहायता से हिंदू धर्म के अंतर्गत किसी व्यक्ति के जीवन में होने वाले सोलह संस्कारों जैसे कि गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन अथवा चूड़ाकरण, उपनयन, समावर्तन, विवाह आदि के लिए शुभ समय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य शुभ कार्य को करने के लिए जैसे कि यात्रा के लिए, नया मकान बनाने और उस की नींव रखने के लिए, गृह प्रवेश के लिए, नया वाहन अथवा प्रॉपर्टी खरीदने के लिए, नया व्यापार शुरू करने के लिए, मुकदमा दाखिल करने के लिए, नौकरी के आवेदन के लिए आदि शुभ कार्यों के लिए शुभ समय ज्ञात करने के लिए मुहूर्त का उपयोग किया जाता है।

फलित कथन में अनेक प्रकार की समस्याओं के निवारण हेतु लघु रूप में गहन विषयों को स्पष्टता प्रदान करने के लिए महान व्यक्तियों ने मुहूर्त मार्तंड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त चूड़ामणि, मुहूर्त माला, मुहूर्त गणपति, मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त सिंधु, मुहूर्त प्रकाश, मुहूर्त दीपक इत्यादि महान ग्रंथों की रचना की है जिनके द्वारा मुहूर्त संबंधित किसी भी जानकारी को प्राप्त किया जा सकता।

दिनस्य यः पञ्चदशो विभागो रात्रेस्तथा तद्धि मुहूर्तमानं।

नक्षत्र नाथ प्रमिते मुहूर्ते, मौहूर्तिकारस्तत्समकर्ममाहु: ।। - श्रीपति

एक मुहूर्त लगभग दो घटी अर्थात 48 मिनट का होता है। यह तब होता है जब दिन और रात दोनों बराबर होते हैं अर्थात 30 घटी (12 घंटे) का दिन और 30 घटी (12 घंटे) की रात्रि। इस प्रकार दिन में लगभग 15 मुहूर्त और रात्रि में भी 15 मुहूर्त होते हैं। यहां दिन की अवधि को दिन मान के द्वारा तथा रात्रि की अवधि को रात्रिमान के अनुसार ज्ञात किया जाता है। जब दिन और रात का अंतर अलग-अलग होता है अर्थात ये बराबर नहीं होते तब मुहूर्त की अवधि कम अथवा ज्यादा होती है क्योंकि तब दिनमान और रात्रि मान में अंतर आ जाता है।

किसी भी मुहूर्त की गणना के लिए हमें पंचांग की आवश्यकता होती है। पंचांग अर्थात जिसके पांच अंग हैं। पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण आते हैं। इन्हीं के आधार पर शुभ समय की गणना की जाती है।


तिथि


जिस प्रकार अंग्रेजी कैलेंडर में तारीखें दी होती हैं उसी प्रकार पंचांग में चंद्रमा तथा सूर्य के भूगोल के आधार पर तिथियों की गणना की जाती है। तिथियां कुल 30 होती हैं जिनमें से चंद्रमा की कलाओं के आधार पर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में 15-15 तिथियां आती हैं। वास्तव में कोई तिथि सूर्य और चंद्रमा के कोणीय आधार से बनती है। जब सूर्य और चंद्रमा एक ही भोगांश पर होते हैं तब वह तिथि अमावस्या कहलाती है और यहीं से शुक्ल पक्ष प्रारंभ होता है। चंद्रमा और सूर्य का 12 अंश का अंतर एक तिथि बनाता है। चंद्रमा और सूर्य के बीच के अंतर को 12 से भाग देने पर एक तिथि निकलती है। अमावस्या और पूर्णिमा के अलावा 14 तिथियां दोनों पक्षों में एक ही नाम से जानी जाती हैं। वैसे प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी अतिथियों के अलग-अलग स्वामी भी होते हैं।

तिथियों को पांच भागों में बांटा जाता है जो इस प्रकार हैं:

1.  नंदा - प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी

2.  भद्रा - द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी

3.  जया - तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी

4.  रिक्ता - चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी

5.  पूर्णा - पंचमी, दशमी, पूर्णिमा


वृद्धि तिथि तथा तिथि क्षय


जब कोई तिथि सूर्य उदय से पहले उपस्थित होती है और अगले सूर्योदय के बाद तक उपस्थित रहती है ऐसे में वृद्धि तिथि कहलाती है। इसके विपरीत यदि कोई तिथि सूर्य उदय के समय नहीं उपस्थित होती और अगले सूर्योदय से पहले ही समाप्त हो जाती है उसे तिथि क्षय कहते हैं।


वार


वार कुल मिलाकर सात होते हैं। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के समय को एक दिन कहते हैं जिसे अहोरात्र भी कहते हैं। प्रत्येक दिन अर्थात अहोरात्र का स्वामी ग्रह होता है। जैसे रविवार का सूर्य, सोमवार का चंद्रमा, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, बृहस्पतिवार का बृहस्पति, शुक्रवार का शुक्र और शनिवार का शनि ग्रह। मुहूर्त निर्णय में वार का भी बहुत महत्व है।


नक्षत्र


नक्षत्र चंद्र मार्ग में तारों के समूह को कहा जाता है जो काफी चमकदार होते हैं और आकाश-मंडल में दिखाई देते हैं। यह कुल मिलाकर 27 होते हैं। भचक्र अर्थात राशि चक्र का कुल मान 360 अंश होता है। इसको 27 समान भागों में बांटने पर 13 अंश 20 कला का एक भाग प्राप्त होता है जो एक नक्षत्र का मान होता है। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं इस प्रकार प्रत्येक चरण 3 अंश 20 कला का होता है। मेष राशि के प्रथम बिंदु से प्रारंभ करके 27 नक्षत्र और उनके स्वामी इस प्रकार हैं:

संख्यानक्षत्र का नामस्वामी ग्रह1अश्वनीकेतु2भरणीशुक्र3कृतिकासूर्य4रोहिणीचंद्रमा5मृगशिरामंगल6आर्द्राराहु7पुनर्वसुबृहस्पति8पुष्यशनि9अश्लेषाबुध10मघाकेतु11पूर्वाफाल्गुनीशुक्र12उत्तरा फाल्गुनीसूर्य13हस्तचंद्रमा14चित्रामंगल15स्वातिराहु16विशाखाबृहस्पति17अनुराधाशनि18ज्येष्ठाबुध19मूलकेतु20पूर्वाषाढ़ाशुक्र21उत्तराषाढ़ासूर्य22श्रवणचंद्रमा23धनिष्ठामंगल24शतभिषाराहु25पूर्वाभाद्रपदबृहस्पति26उत्तराभाद्रपदशनि27रेवतीबुध


योग


योग का निर्माण सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार होता है। कुल योग 27 होते हैं। इनमें से कुछ शुभ तथा कुछ अशुभ माने जाते हैं। इन योगों के नाम, उनके स्वामियों के नाम और शुभ और अशुभ फलों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है :

संख्यायोग का नामस्वामी का नामफल1विष्कुम्भयमअशुभ2प्रीतिविष्णुशुभ3आयुष्मानचंद्रशुभ4सौभाग्यब्रह्माशुभ5शोभनबृहस्पतिशुभ6अतिगण्डचंद्रअशुभ7सुकर्माइंद्रशुभ8धृतिजलशुभ9शूलसर्पअशुभ10गण्डअग्निअशुभ11वृद्धिसूर्यशुभ12ध्रुवभूमिशुभ13व्याघातवायुअशुभ14हर्षणभगशुभ15वज्रवरुणअशुभ16सिद्धिगणेशशुभ17व्यतिपातरूद्रअशुभ18वरीयानकुबेरशुभ19परिघविश्वकर्माअशुभ20शिवमित्रशुभ21सिद्धकार्तिकेयशुभ22साध्यसावित्रीशुभ23शुभलक्ष्मीशुभ24शुक्लपार्वतीशुभ25ब्रह्मअश्विनी कुमारशुभ26ऐन्द्रपितरअशुभ27वैधृतिदितिअशुभ


करण


तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। करणों की कुल संख्या 11 होती है। इनमें से चार करण स्थिर होते हैं और सात करण चर होते हैं। इनके नाम और इनके स्वामियों के नाम निम्नलिखित हैं :

संख्याकरणस्वामी1बवइन्द्र2बालवब्रह्मा3कौलवमित्र4तैतिलविश्वकर्मा5गरभूमि6वणिजलक्ष्मी7विष्टियम8शकुनिकलि9चतुष्पदरूद्र10नागसर्प11किंस्तुघ्नमरुत


संक्रान्ति


सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना संक्रान्ति कहलाता है। सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी राशि के नाम पर संक्रान्ति का नाम होता है। जैसे- जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो इसको मकर संक्रान्ति कहते हैं। संक्रान्ति को कार्यों का करना वर्जित माना जाता है मगर इसी दिन को स्नान, दान, पुण्य कर्म, पिण्ड दान, तर्पण, तीर्थ स्नान आदि कार्यों के लिए बहुत शुभ माना जाता है।


सौर मास


सूर्य की एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति के बीच का समय एक सौर मास कहलाता है। इस प्रकार एक वर्ष में सूर्य 12 राशियों में रहता है तो उसी के अनुसार कुल 12 सौर मास होते हैं। चूंकि सूर्य एक दिन में लगभग 1 अंश गति करता है इसलिए एक सौर मास लगभग 30 से 31 दिन का होता है तथा कभी-कभी 28 या 29 दिनों का भी हो सकता है। सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में जाने से पहले के समय को धनुर्मास कहते है। धार्मिक कार्यों में इस माह का विशेष महत्व माना गया है। एक सौर वर्ष लगभग 365 दिनों का होता है।


पक्ष


चन्द्रमा की कलाएं घटती और बढ़ती रहती हैं। एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक होती है। जहाँ 15 दिन ये कलाएं घटती हैं और पन्द्रहवें दिन चन्द्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता इसको अमावस्या कहते हैं। वहीँ 15 दिन के उपरांत ये बढ़ना शुरू हो जाती हैं और तीसवें दिन चंद्रमा पूर्ण हो जाता है इसको पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार 30 दिनों की इस अवधि को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।


चंद्र मास


चंद्र मास चंद्रमा की कलाओं पर आधारित होता है। ये शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के संयोग से बनता है। इसे दो प्रकार से माना जाता है- शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्य‍ चंद्रमास कहलाता है। वहीं कृष्ण‍ पक्ष की प्रतिपदा से 'पूर्णिमांत' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30 व 28 एवं 27 दिनों का भी हो सकता है। पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण माना गया है। चैत्र मास प्रथम चंद्रमास है और फाल्गुन अन्तिम। विभिन्न चंद्र मास के नाम इस प्रकार हैं: चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ फाल्गुन। एक चंद्र वर्ष लगभग 355 दिनों का होता है। इस प्रकार एक चंद्र वर्ष, एक सौर वर्ष से लगभग 11 दिन 3 घड़ी 48 पल छोटा होता है। इसी कारण प्रत्येक 3 वर्ष के उपरान्त चंद्र वर्ष में एक महीना जोड़ दिया जाता है और उसी मास को अधिक मास कहा जाता है।


अयन


सूर्य अपने मार्ग में लगभग आधे वर्ष तक उत्तरी गोलार्ध में रहता है और शेष आधे वर्ष तक दक्षिणी गोलार्ध में। दक्षिण गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध में जाते समय सूर्य का केंद्र आकाश के जिस बिंदु पर रहता है उसे वसंत विषुव कहते हैं, इसी को अयन कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में कुल 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।


उत्तरायण


जब सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करता है तो इस मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है। ये समय तब तक रहता है जब तक कि सूर्य मिथुन राशि से न निकल जाये। सूर्य उत्तरायण के दौरान हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। इस समय में विवाह और उपनयन आदि संस्कार भी किये जाते हैं। लेकिन विवाह केवल मीन सौर मास को छोड़कर ही किये जाते हैं।


दक्षिणायन


जब सूर्य मिथुन राशि से निकलकर कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है। दक्षिणायन व्रतों का और उपवास का समय होता है। दक्षिणायन में विवाह और उपनयन आदि संस्कार वर्जित माने गए हैं। लेकिन विशेष संयोग में वृश्चिक सौर मास में ये कार्य भी किये जाते हैं।

इन सभी मुख्य बिंदुओं के अतिरिक्त भी कई ऐसे प्रमुख सूचक हैं जिनका उपयोग व्यापक रूप से मुहूर्त में किया जाता है क्योंकि उनका बड़ा महत्व है। उनमें से कुछ मुख्य सूचक इस प्रकार हैं :


भद्रा


मुहूर्त के अंतर्गत भद्रा का मुख्य रूप से विचार किया जाता है। वास्तव में उपरोक्त वर्णित विष्टि करण ही भद्रा कहलाता है। इसको शुभ कार्यों में त्याज्य माना जाता है अर्थात भद्रा के समय शुभ कार्य नहीं किए जाते। इसके लिए भद्रा का वास किस स्थान पर है यह देखना अति आवश्यक होता है। जब चंद्रमा मेष वृषभ मिथुन और वृश्चिक राशि में हो तो भद्रा स्वर्ग लोक में मानी जाती है। जब चंद्रमा कर्क सिंह कुंभ तथा मीन राशि में हो तो ऐसे में भद्रा मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर मानी जाती है तथा जब चंद्रमा कन्या तुला धनु मकर में हो तो भद्रा का वास पाताल लोक में माना जाता है। इसमें मृत्युलोक में भद्रा का वास विशेष रूप से हानिकारक माना जाता है। मुद्रा के दोष से बचने के लिए भगवान शिव की आराधना की जाती है। केवल कुछ कार्यों जैसे कि होलिका दहन, जातकर्म संस्कार, अदला-बदली से संबंधित व्यापार आदि में भद्रा शुभ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त भद्रा के मुख्य और भद्रा की पूँछ का विचार भी किया जाता है।


अभिजीत मुहूर्त


दिन के मध्य भाग अर्थात दिन मान के आधे भाग से आधा घटी अर्थात 12 मिनट पहले और 12 मिनट पश्चात का समय अभिजीत मुहूर्त कहलाता है। इस मुहूर्त में किए जाने वाले सभी कार्य सफल होते हैं और व्यक्ति को विजय प्राप्त होती है। इसी को आठवाँ मुहूर्त भी कहा जाता है।


दो घटी मुहूर्त


मुहूर्त जिसका मान घटी होता है इसलिए इसको ही हम दो घटी मुहूर्त भी कहते हैं। एक दिन में 24 घंटे होते हैं जिनका ज्योतिषीय मान 60 घटी होता है। इस प्रकार 1 घंटे अर्थात 60 मिनट में 2.5 घटी होती हैं। एक मुहूर्त लगभग 48 मिनट का होता है जिसका मान 2 घटी होता है। इस प्रकार 2 घटी समय की ऐसी इकाई है जिसका विचार किसी भी शुभ कार्य को सम्पादित करने के लिए किया जाता है।


लग्न तालिका


मुहूर्त का विचार करते समय लग्न का विचार करना भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। लग्न का निर्धारण किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए तथा किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों के लिए भी किया जाता है।


दिशा शूल (दिक् शूल)


हम सभी को किसी न किसी कार्य हेतु यात्रा करनी ही पड़ती है। कभी-कभी यात्रा सफलतादायक और सुखमय होती है, तो कभी यह असफलतादायक और कष्टमय होकर हमें परेशान भी करती हैं। इससे बचने के लिए हमें प्रतिदिन दिशा शूल का ध्यान ज़रूर रखना चाहिए।

दिशा शूल ले जाओ बामे, राहु योगिनी पूठ।

सम्मुख लेवे चंद्रमा, लावे लक्ष्मी लूट।

किसी विशेष दिन किसी विशेष दिशा में यात्रा करना त्याज्य माना गया है। क्योंकि ऐसा करने पर हानि और कष्ट उठाने पड़ते हैं। विभिन्न दिनों का दिशा शूल निम्नलिखित तालिका से समझा जा सकता है :

●  सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा में दिशा शूल माना जाता है।

●  रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा में दिशा शूल माना जाता है।

●  मंगलवार और बुधवार को उत्तर दिशा में दिशा शूल माना जाता है।

●  गुरूवार को दक्षिण दिशा में दिशा शूल माना जाता है।

●  सोमवार और गुरूवार को दक्षिण-पूर्व कोण में दिशा शूल माना जाता है।

●  रविवार और शुक्रवार को दक्षिण-पश्चिम कोण में दिशा शूल माना जाता है।

●  मंगलवार को उत्तर-पश्चिम कोण में दिशा शूल माना जाता है।

●  बुधवार और शनिवार को उत्तर-पूर्व कोण में दिशा शूल माना जाता है।

उपरोक्त वर्णित घटकों के अतिरिक्त मुहूर्त के द्वारा हम दैनिक चौघड़िया, दैनिक राहु काल, होरा, चंद्र बल, तारा, ग्रहण जैसी महत्वपूर्ण गणनाओं का अध्ययन कर सकते हैं और अनेकों शुभ कार्यों को सम्पन्न करने के मुहूर्त जैसे कि मुण्डन मुहूर्त, वाहन ख़रीद मुहूर्त, नींव रखने का मुहूर्त, व्यापार आरम्भ करने का मुहूर्त, विवाह का मुहूर्त, ग्रह प्रवेश हेतु उत्तम समय, यात्रा मुहूर्त तथा ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण तथा शुभ समय को भी जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त अग्निवास, 12 राशियों का घात चक्र, सोलह संस्कार के लिए शुभ समय तथा कुछ विशिष्ट योगों जैसे कि सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, द्विपुष्कर योग, त्रिपुष्कर योग, रवि योग, हुताशन योग, गुरु पुष्य योग, रवि पुष्य योग तथा नल्ला नेरम - गौरी पंचांगम आदि पर भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण कब पड़ेगा अथवा शुक्र और बृहस्पति ग्रह के अस्त होने का समय भी हम जान सकते हैं। इनके बारे में जानना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि जिस नक्षत्र में ग्रहण पड़ता है उस नक्षत्र में छः महीने तक शुभ कार्य करना वर्जित होता है तथा शुक्र और बृहस्पति सर्वाधिक शुभ ग्रहों के अस्त समय में शुभ कार्यो को नहीं किया जाता। 


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